Friday 27 January 2017

Jal Thal Mal: An Exploration of Sanitation

Jal Thal Mal:
An Exploration of Sanitation

A book from Gandhi Peace Foundation

Since 1986, the Union government has 
consistently run programmes for sanitation. There
is no dearth of funds the government is willing to
commit to such schemes. The political will is there.
Celebrities from the world of entertainment and
sports have stepped forward to campaign for
sanitation, appealing to people day in and day out
to raise the standard of sanitation and end open defecation.
Yet about half of India’s population does not have access to toilets.
Open defecation is all around us, and is used to beat ourselves about
the poor state of development in the country
. India is often called the
open defecation capital of the world. Indian Railways has been called
a great big toilet.
There is a darker side to the toilet story, however, that is seldom
discussed. That is the extreme cost of existing means of sanitation.
When only half the country has access to toilets, untreated sewage
has contaminated our ground water, our rivers, our ponds and
wetlands. The sparkling toilets, flush with anti-bacterial agents, are
polluting not just our water sources but even our future. What, then,
will be the state of water pollution when everybody in India has a toilet?
Toilets connected to sewerage wer
e once touted as the answer to
ending the dreaded practice of manual scavenging of excreta in India.
Instead of ending the exploitative custom, sewers now require
workers to dive inside to clean them up. The Safai Karamcharis who
have to do this invariably come from the same castes and communities
that have been condemned to manual scavenging.
The existing sanitation system has another
worrying result. It strips the soil of nutrients. Nutrients
are taken out of the soil through the raising of crops in
agriculture. The natural nutrient cycle requires soil
nutrients to return to the soil for life to continue and prosper
. The sewage system, on the other hand, takes
nutrients out of the soil and puts it in the water
. The land turns barren, the water polluted.

Water-borne sewage is fast becoming a means to ruin the balance
between water (Jal) and land (Thal), a balance critical for our survival.
Upsetting this balance is the output of our bodies, our excreta (Mal).
The upcoming Hindi book Jal Thal Mal is a dive into the deep
ocean of sanitation. Prepared after two years of research, the book is
designed and illustrated by a tasteful hand. The book attempts to get
the sanitation discussion out of the narrow confines of a toilet-building
campaign. It tracks the path of sanitation from our bodies to the water
sources.
Mere access to toilets is not a concern of this book. It locates the
toilet as a link in a vast chain.
A chain that runs in a triangle. One end
of this is water
, another is land, and the third end is our bodies. Jal,
Thal and Mal. The book is not a rallying cry of environmentalism, in
order to ‘save the planet’. It emerges from the realisation that
humankind needs to save itself, from its own short-sightedness.
The book insists that the solutions to the sanitation crises does
not lie in government programmes, or in the policy decisions of a
municipality, a provincial or a central government. For this, our society
needs to first attempt a sanitation of its ideas of cleanliness and social
conduct, our ideas of resources and waste, our ideas of where we
spring from and what will happen if we keep allowing our
surroundings to get contaminated with untreated sewage.

source: http://www.gandhipeacefoundation.org/gandhi1002/pdf/589-592.pdf

जल, थल और मल

Author: 
सोपान जोशी
Source: 
गांधी मार्ग, जुलाई-अगस्त 2011
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आज तो केवल एक तिहाई आबादी के पास ही शौचालय की सुविधा है। इनमें से जितना मैला पानी गटर में जाता है, उसे साफ करने की व्यवस्था हमारे पास नहीं है। परिणाम आप किसी भी नदी में देख सकते हैं। जितना बड़ा शहर, उतने ही ज्यादा शौचालय और उतनी ही ज्यादा दूषित नदियां।
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अक्सर व्यंग में कहा जाता है और शायद आपने पढ़ा भी हो कि हमारे देश में आज संडास से ज्यादा मोबाइल फोन हैं। अगर यहां हर व्यक्ति के पास मल त्यागने के लिए संडास हो तो कैसा रहे? लाखों लोग शहर और कस्बों में शौच की जगह तलाशते हैं और मल के साथ उन्हें अपनी गरिमा भी त्यागनी पड़ती है। महिलाएं जो कठिनाई झेलती हैं उसे बतलाना बहुत ही कठिन है। शर्मसार वो भी होते हैं, जिन्हें दूसरों को खुले में शौच जाते हुए देखना पड़ता है, तो कितना अच्छा हो कि हर किसी को एक संडास मिल जाए और ऐसा करने के लिए कई लोगों ने भरसक कोशिश की भी है। जैसे गुजरात में ईश्वरभाई पटेल का बनाया सफाई विद्यालय और बिंदेश्वरी पाठक के सुलभ शौचालय।

लेकिन अगर हरेक के पास शौचालय हो जाए तो बहुत बुरा होगा। हमारे सारे जल स्रोत-नदियां और उनके मुहाने, छोटे-बड़े तालाब, जो पहले से ही बुरी तरह दूषित हैं- तब तो पूरी तरह तबाह हो जाएंगे। आज तो केवल एक तिहाई आबादी के पास ही शौचालय की सुविधा है। इनमें से जितना मैला पानी गटर में जाता है, उसे साफ करने की व्यवस्था हमारे पास नहीं है। परिणाम आप किसी भी नदी में देख सकते हैं। जितना बड़ा शहर, उतने ही ज्यादा शौचालय और उतनी ही ज्यादा दूषित नदियां। दिल्ली में यमुना हो चाहे बनारस में गंगा, जो नदियां हमारी मान्यता में पवित्र हैं वो वास्तव में अब गटर बन चुकी हैं। सरकारों ने दिल्ली और बनारस जैसे शहरों में अरबों रुपए खर्च कर मैला पानी साफ करने के संयंत्र बनाए हैं। इन्हें सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट कहते हैं। ये संयंत्र चलते हैं और फिर भी नदियां दूषित ही बनी हुई हैं। ये सब संयंत्र दिल्ली जैसे सत्ता के अड्डे में भी गटर का पानी बिना साफ किए यमुना में उंडेल देते हैं।

बताया जाता है कि हमारी बड़ी आबादी इसमें बड़ी समस्या है। जितने शौचालय देश में चाहिए, उतने अगर बन गए तो हमारा जल संकट घनघोर हो जाएगा पर नदियों का दूषण केवल धनवान लोग करते हैं, जिनके पास शौचालय हैं। गरीब बताए गए लोग जो खुले में पाखाने जाते हैं, उनका मल गटर तक पहुंचता ही नहीं है क्योंकि उनके पास सीवर की सुविधा नहीं है फिर भी जब यमुना को साफ करने का जिम्मा सर्वोच्च न्यायालय ने उठाया तो झुग्गी में रहने वालों को ही उजाड़ा गया। न्यायाधीशों ने अपने आप से ये सवाल नहीं किया कि जब वो पाखाने का फ्लश चलाते हैं तो यमुना के साथ कितना न्याय करते हैं।

इससे बड़ी एक और विडंबना है। एक तरफ हमारे जल स्रोत सड़ांध देते नाइट्रोजन के दूषण से अटे पड़े हैं, दूसरी तरफ हमारी खेती की जमीन से जीवन देने वाला नाइट्रोजन रिसता जा रहा है। कोई भी किसान या कृषि विज्ञानी आपको बता देगा कृत्रिम खाद डाल, डाल कर हमारे खेत बंजर होते जा रहे हैं। चारे की घोर तंगी है और मवेशी रखना आम किसानों के बूते से बाहर हो गया है। नतीजतन गोबर की खाद की भी बहुत किल्लत है। कुछ ही राज्य हैं जैसे उत्तराखंड जहां आज भी ढोर चराने के लिए जंगल बचे हैं। उत्तराखंड से खाद पंजाब के अमीर किसानों को बेची जाती है। उर्वरता के इस व्यापार को ठीक से समझा नहीं गया है अभी तक।
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इससे बड़ी एक और विडंबना है। एक तरफ हमारे जल स्रोत सड़ांध देते नाइट्रोजन के दूषण से अटे पड़े हैं, दूसरी तरफ हमारी खेती की जमीन से जीवन देने वाला नाइट्रोजन रिसता जा रहा है। कोई भी किसान या कृषि विज्ञानी आपको बता देगा कृत्रिम खाद डाल, डाल कर हमारे खेत बंजर होते जा रहे हैं।
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तो हम अपनी जमीन की उर्वरता चूस रहे हैं और उससे उगने वाले खाद्य पदार्थ को मल बनने के बाद नदियों में डाल रहे हैं अगर इस मल-मूत्र को वापस जमीन में डाला जाए- जैसा सीवर डलने के पहले होता ही था- तो हमारी खेती की जमीन आबाद हो जाएगी और हमारे जल स्रोतों में फिर प्राण लौट आएंगे। फिर भी हम ऐसा नहीं करते। इसकी कुछ वजह तो है हमारे समाज का इतिहास। दक्षिण और पश्चिम एशिया के लोगों में अपने मल-मूत्र के प्रति घृणा बहुत ज्यादा है। ये घृणा हमारे धार्मिक और सामाजिक संस्कारों में बस गई है। हिंदू, यहूदी और इस्लामी धारणाओं में मल-मूत्र त्याग के बाद शुद्धि के कई नियम बतलाए गए हैं, लेकिन जब ये संस्कार बने तब गटर से नदियों के बर्बाद होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती होगी। वर्ना क्या पता नदियों को साफ रखने के अनुष्ठान भी बतलाए जाते और नियम होते नदियों को शुद्ध रखने के लिए।

बाकी सारे एशिया में मल-मूत्र को खाद बना कर खेतों में उपयोग करने की एक लंबी परंपरा रही है। फिर चाहे वो चीन हो, जापान या इंडोनेशिया। हमारे यहां भी ये होता था, पर जरा कम, क्योंकि हमारे यहां गोबर की खाद रही है, जो मनुष्य मल से बनी खाद के मुकाबले कहीं बेहतर होती है। हमारे देश में भी वो भाग जहां गोबर की बहुतायत नहीं थी, वहां मल-मूत्र से खाद बनाने का रिवाज था। लद्दाख में तो आज भी पुराने तरीके के सूखे शौचालय देखे जा सकते हैं जो विष्ठा की खाद बनाते थे। आज पूरे देश में चारे और गोबर की कमी है और सब तरफ लद्दाख जैसे ही हाल बने हुए हैं। तो क्यों पूरा देश ऐसा नहीं करता?

कुछ लोग कोशिश में लगे हैं कि ऐसा हो जाए। इनमें ज्यादातर गैर सरकारी संगठन हैं और साथ में हैं कुछ शिक्षाविद् और शोधकर्ता। इनका जोर है इकोलॉजिकल सनिटेशन या इकोसॅन पर। ये नए तरह के शौचालय हैं जिनमें मल और मूत्र एक ही जगह न जाकर दो अलग-अलग खानों में जाते हैं, जहां इन्हें सड़ा कर खाद बनाया जाता है।

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जो अरबों रुपए सरकार गटर और मैला पानी साफ करने के संयंत्रों पर खर्च करती है वो अगर इकोसॅन शौचालयों पर लगा दे तो करोड़ों लोगों को साफ सुथरे शौचालय मिलेंगे और बदले में नदियां खुद ही साफ हो चलेंगी। किसानों को टनों प्राकृतिक खाद मिलेगी और जमीन का नाइट्रोजन जमीन में ही रहेगा।
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इस विचार में बहुत दम है। कल्पना कीजिए कि जो अरबों रुपए सरकार गटर और मैला पानी साफ करने के संयंत्रों पर खर्च करती है वो अगर इकोसॅन शौचालयों पर लगा दे तो करोड़ों लोगों को साफ सुथरे शौचालय मिलेंगे और बदले में नदियां खुद ही साफ हो चलेंगी। किसानों को टनों प्राकृतिक खाद मिलेगी और जमीन का नाइट्रोजन जमीन में ही रहेगा। पूरे देश की आबादी सालाना 80 लाख टन नाइट्रोजन, फॉस्फेट और पोटेशियम दे सकती है। हमारी 115 करोड़ की आबादी जमीन और नदियों पर बोझ होने की बजाए उन्हें पालेगी क्योंकि तब हर व्यक्ति खाद की एक छोटी-मोटी फैक्टरी होगा। जिनके पास शौचालय बनाने के पैसे नहीं हैं वो अपने मल-मूत्र की खाद बेच सकते हैं। अगर ये काम चल जाए तो लोगों को शौचालय इस्तेमाल करने के लिए पैसे दिए जा सकते हैं। इस सब में कृत्रिम खाद पर दी जाने वाली 50,000 करोड़, जी हां पचास हजार करोड़ रुपए की सब्सिडी पर होने वाली बचत को भी आप जोड़ लें तो इकोसॅन की संभावना का कुछ अंदाज लग सकेगा।

लेकिन छह साल के प्रयास के बाद भी इकोसॅन फैला नहीं है। इसका एक कारण है मैला ढोने की परंपरा। जैसा कि चीन में भी होता था, मैला ढोने का काम एक जाति के पल्ले पड़ा और उस जाति के सब लोगों को कई पीढ़ियों तक कई तरह के अमानवीय कष्ट झेलने पड़े। एक पूरे वर्ग को भंगी बना कर हमारे समाज ने अछूत करार दे कर उनकी अवमानना की। आज भी भंगी शब्द के साथ बहुत शर्म जुड़ी हुई है।

इकोसॅन से डर लगता है कई लोगों को। इनमें कुछ सरकार में भी हैं। उन्हें लगता है कि सूखे शौचालय के बहाने कहीं भंगी परंपरा लौट ना आए। डर वाजिब भी है पर इसका एकमात्र उपाय है कि इकोसॅन शौचालय का नया व्यवसाय बन पाए जिसमें हर तरह के लोग निवेश करें- ये मानते हुए कि इससे व्यापारिक लाभ होगा। जो कोई एक इसमें पैसे बनाएगा वो दूसरों के लिए और समाज के लिए रास्ता खोल देगा। अगर ऐसा होता है तो सरकार की झिझक भी चली जाएगी। इकोसॅन ऐसी चीज नहीं है जो सरकार के भरोसे चल पड़ेगी। इसे करना तो समाज को ही पड़ेगा। इसकी कामयाबी समाज में बदलाव के बिना संभव नहीं है।
Source: http://hindi.indiawaterportal.org/node/35541 
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